!!संपादकीय!!
आज भारतीय संस्कृति में राजनीति मानव का अभिन्न अंग होता जा रहा है ,हर व्यक्ति चाहे वो बृद्ध हो या युवा सब के सब राजनीति में अपना योगदान दे रहे है।राजनितिक होना कोई गलत तो नहीं ?।तो क्या हम मर्यादित राजनीति के हिस्सा है? लेकिन सुना है कि छल को सायद राजनीती कहते है?छल शब्द का अर्थ ही छलनी करना होता है ।तोडना खंडित करना।चाहे वो जाती के नाम पर हो या धर्म।लेकिन राजनीति शब्द का अर्थ राज्य के नीतियों से होता है ,तो क्या हमे जाती या धर्म के नाम पर छलना राजनीति है ?अभी हाल ही में एक घटना सामने आया था जिसमे एक युवक द्वारा दूसरे धर्म के एक व्यक्ति को बड़ी हिंसात्म रूप से उसकी हत्या कर दी जाती है ,फिर क्या दो समुदायों को आपस में लड़ाने का मौका तो मिला ।अब ये मुद्दा जहा मानवता की हत्या हुई उसमे कुछ राजनेताओं ने उसे राजनीती मान कर अपने वोट बैंक को भरने में लग गए ।राजनीति की बात अब क्या करे जहा हमारे देश के यूवा जो अपने माँ का टुकड़े करने की बात कहने लगा और उसे लेकर कुछ नेता दलित बना दिए तो कुछ गरीब,तो कुछ उसके साथ बैठ कर उसके थाली में खाने लगे की इसे कोई अछूत न मान ले ?समझ नहीं आरहा ये कैसी राजनीती है?हम तो अपने को निरपेक्ष नहीं मानते ,हमारे देश में स्वामी विवेका नन्द जी जैसे महापुरुष हुए,जिन्होंने मानव धर्म का पाठ पढ़ाया लेकिन युवा क्या उन्हें भूल गए? जो लोग निरपेक्ष होने लगे और मानव धर्म का गला घोंटने पर उतारू हो गए ?ये तो इतिहास ही बताता रहा है राज नीति और धर्म के युद्ध में ज्यादा मानवता ही मरती है।तो क्या हम पहले भी ऐसे ही रहे है?यदि पहले से ही ऐसे होते तो हमारी संस्कृति के गुणगान पूरे विश्व में क्यों होता रहा है। भारत अदि काल से ही समर्पण ,प्रेम ,मानवता,और सम्मान का पाठ पुरे विश्व को बताया ,लेकिन आज हम ज्यादा पाश्च होने की होड़ में आप को नहीं लगता कि हम अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे है,संकारो को भूल रहे है?अपनी मर्यादाओं से बाहर आरहे है,ज्यादा संसाधन के होड़ में हम गलत मार्ग पर जा रहे है,अपने अंदर के सत्व गुण को छोड़ कर तमस गुण के साथ जीने लगे है,हम पहले कम संसाधनों में बड़े प्रसन्न थे ,तो क्या आज हम इतने संसाधनों के साथ भी खुश है?हम राजनीती जैसे पवित्र लोकतान्त्रिक परिभाषा का गलत उपयोग कर के आपस में मानवता का वध विकास के नहीं अपितु अपने वर्चस्व की लड़ाई मान कर लोकतंत्र को गन्दा कर रहे है?मजहब के नाम पर और राजनीति के नाम पर आखिर कब तक तड़प कर मरती रहेगी मानवता।।
रूद्र पाठक(M.A.-M.J.MC संपादक)